कविता : सखि बसंत में तो आ जाते

सखि बसंत में तो आ जाते।

विरह जनित मन को समझाते।

 

दूर देश में पिया विराजे,

प्रीत मलय क्यों मन में साजे,

आर्द्र नयन टक टक पथ देखें

काश दरस उनका पा जाते।

सखि बसंत में तो आ जाते।

 

सुरभि मलय मधु ओस सुहानी,

प्रणय मिलन की अकथ कहानी,

मेरी पीड़ा के घूंघट में,

मुझसे दो बातें कह जाते।

सखि बसंत में तो आ जाते।

 

सुमन-वृन्त फूले कचनार,

प्रणय निवेदित मन मनुहार

अनुराग भरे विरही इस मन को

चाह मिलन की तो दे जाते,

सखि बसंत में तो आ जाते।

 

दिन उदास विहरन हैं रातें

मन बसंत सिहरन सी बातें

इस प्रगल्भ मधुरत विभोर में

काश मेरा संदेशा पाते।

सखि बसंत में तो आ जाते।

 

बीत रहीं विह्वल सी घड़ियां,

स्मृति संचित प्रणय की लड़ियां,

आज ऋतु मधुमास में मेरी

मन धड़कन को वो सुन पाते।

सखि बसंत में तो वो आ जाते।

 

तपती मुखर मन वासनाएं।

बहतीं बयार सी व्यंजनाएं।

विरह आग तपती धरा पर

प्रणय का शीतल जल गिराते।

सखि बसंत में तो आ जाते।

 

मधुर चांदनी बन उन्मादिनी

मुग्धा मनसा प्रीत रागनी

विरह रात के तम आंचल में

नेह भरा दीपक बन जाते।

सखि बसंत में तो आ जाते।

 

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